1.बात उन दिनों की है जब हम 22 इंची साईकल को चलाना सिख रहे थे , ऊचाई में हम साईकल के बराबर थे जब हम खड़े होते तो साईकल का सीट हमारे सर तक आता ।
कैसे भी करके उसे घर में बने सीढ़ियों से निकाल कर घर के बाहर लाते और उसमे कैची सिस्टम कहे जाने वाले करतब कर उसमे प्रत्यंचा चढ़ाने की बार बार कोशिश करते ,
कई बार की लगातार कोशिश से खट्- खट् कि आवाज आती और करीब महीने भर इस कोशिश के बाद दूसरा पाव साईकल के पहले वाले पायडल पर आकर रुकता और करीब एक या दो पायडल मारने के बाद 100 मीटर दूर जाने वाला मजा दिल को तर्र कर देता ,
2.कई बार तो इस खट्- खट् की आवाज से साईकल का एक पूर्जा ‘बेरिंग’ जो की पायडल से जुड़ा हुआ होता है वह घिस जाता और फिर साईकल का आगे बढ़ना सायद ना- मुमकिन हो जाता था ,
फिर क्या था चुपके से घर आते और साईकल जगह पर रख आते और घर मे पूछने पर पूरे ईमानदारी के साथ नही हम नही जानते की हामी भर देते ।
3.साईकल सीखने का क्रेज इतना था की आस पास के सभी हमउम्र एक साथ ही राईडिंग करने निकल जाते उसे पहले हम किसी ढलान वाले जगह पर ले जाते फिर उसमे कैचि सिस्टम यानी एक पैर को साईकल के बिचोबीच फांदकर चलाना सीखते ,साइकल ढलान वाली जगह पर जितना अधिक दूर तक जाता उतना ही अच्छा होता,
4.साईकल सीखते वक़्त कई बार गिरते इस कारण पैर पर बहुत सारे चोट भी लगता घुटने वाले जगह तो जैसे चोट खा-खा कर पत्थर का हो गया था , कहा जाता था कि हाथ की कलाई और घुटने से निकले खून को मान्थे पर तिलक करने से जल्दी ही साईकल सिखा जा सकता है हम इस खूनी तिलक वाली बात को कुछ ज्यादा ही सिरियस ले लिए थे और करीब सात से आठ बार इसे दोहराए भी थे ।
5.पारस मंडल का नाती तितरा तो एक बार साईकल समेत एक गड्ढे में जा गिरा था तब उसके पूरे शरीर में बबूल का कांटा उग आया था, लेकिन हार न मानते हुए उन्होंने सात साल की उम्र में ही इसे साधना सिख गया था।
6.ये क्रम कुछ दिन सीखने के बाद अब बारी आती असली वाली स्टरिंग को पकड़ने की इस क्रम को हैवी ड्राइवर वाला क्रम कह सकते हैं,जो हमारे पिताजी दादा जी का इजात किया होता था इसमे अब प्रत्यंचा सीट पर बैठकर चढ़ाना होता था साईकल के सीट पर बैठकर उसे चलाना हमारे लिए किसी हेलीकाप्टर उडाने से कम नही था ,
सीट पर बैठकर जब आधे पैर से पायडल को धकेलते तो ऐसा लगता की किसी हाथी की पीठ पर आकर बैठ गये हैं,इस क्रम में हमे अपने पैर को साईकल की ढंडि को फांदकर दूसरी ओर ले जाना होता तब जाकर हम साईकल के बिचोबिच् आते और सही से अपने चूतड़ को टम्मक-टू के जैसे उपर नीचे कर सवारी करते ,
आधे गिर जाने के डर से और आधे बल से आख़िरकार हम भी इस कोशिश को पार कर गये किसी भी तरह कोशिश जारी रखते हुए उस पर बैलेंस कैसे बनाना है हम भली-भाँति सिख चुके थे।
7.एक बार तो अति-उत्साह में तेज़ रफ्तार साईकल चलाते हुए एक बिजली के खंबे से टकरा कर सर फोड़वा लिए थे फिर क्या अब तो पुरा का पुरा राजतिलक हो गया था मानो ।
अब घर मे जब भी गेहूँ पिसवाने के काम से लेकर खेती के दिनों में किसी खेत तक राखड और यूरिया की बोरी ले जाने वाला सम्मान जनक काम हम ही को सौपा जाता ।।।।।।